वेदान्त वेद्य आत्मा नित्य, एक, निर्गुण, निरपेक्ष होने के कारण है विलक्षण – पुरी शंकराचार्य

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अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी – हिन्दुओें के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वतीजी महाराज अभाव के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि गो: आदि शब्द अपने – अपने वाच्य से सम्बद्ध परिलक्षित होने पर भी वस्तुतः तटस्थ उपलक्षक सिद्ध हैं ; ना कि विकल्प ज्ञान में सन्निहित। विषय अवबोध रूप प्रयोजन के साधक श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्य वर्णात्मक अभिधान और घट के द्वारा सिद्ध होने योग मधुधारण आदि रूप प्रयोजन के साधक चक्षुर आदि प्रमाण गम्य घटा आदि रूप अभिधेय की अत्यन्त भिन्नता के कारण दोनों में तादात्म्य असिद्ध है। वरिष्ठ न्याय विदों ने संज्ञी के अधिगम की दशा में संज्ञी को संज्ञा का स्मारक माना है। वेदान्त सम्मत आत्म तत्त्व वैशेषिक तथा न्याय सम्मत द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव – विलक्षण है। वेदान्त वेद्य आत्मा नित्य, एक, निर्गुण, निरपेक्ष होने के कारण समवायि कारण योग्य , गुणाश्रय, स्वोचित जातिमत् द्रव्य से विलक्षण है। वह आश्रित – आश्रय – रहित असङ्ग और अद्वय होने के कारण सामान्यवान्, असमवायि कारण, अस्पन्दात्मा (कर्मभिन्न), द्रव्य आश्रित गुण से विलक्षण है। वह अचल होने के कारण चलनात्मक कर्म से भिन्न है। वह सर्वाधिष्ठान होने के कारण सदृश पदार्थों में अनुगत एक धर्म रूप सामान्य से भिन्न है। वह नित्य, एक, सर्वानुगत, भेदक – भेद्य – विहीन होने के कारण नित्य द्रव्यों का परस्पर भेद साधक स्वतः सिद्ध भेदकता सम्पन्न विशेष से विलक्षण है। वह असङ्ग, अव्यय, अगुण, अक्रिय, स्वप्रकाश, अद्वय होने के कारण अपृथक् सिद्ध दो पदार्थों के मध्य सम्बन्ध रूप समवाय से विलक्षण है। अवयवी अवयव के, गुण गुणी के, कर्म क्रियावान् के, जाति व्यक्ति के और विशेष पृथ्वी – जल – तेज – वायु के परमाणु, आकाश, दिक्, काल, मन तथा आत्मा – संज्ञक नित्य द्रव्यों के आश्रित ही रहते हैं। इनमें जो अनित्य हैं, वे अपने विनाश की सामग्री के सन्निधान काल संज्ञक विनश्यत् अवस्था में ही अनाश्रित रहते हैं । यथा तन्तुनाश के समय पट और आश्रय नाश के समय गुण। वेदान्त वेद्य आत्मा अनादि – अनन्त – असङ्ग – अबाध्य – अद्वय विभु – स्व प्रकाश -ह साक्षाद परोक्ष होने से निषेध मुख प्रत्यय गम्य अभाव से विलक्षण है। स्वानुयोगी में स्व प्रतियोगी के अभाव के कारण उसके संसर्ग का विरोधी अभाव प्रध्वंस अभाव या अत्यन्त अभाव है। यथा, तन्तुओं के संयोग का नाश होने पर पट का प्रध्वंस सुनिश्चित है। अतः तन्तुओं में पट का संसर्ग नहीं रहता। तद्वत् कपाल में पट का अत्यन्त अभाव के कारण उसके समवायात्मक संसर्ग का अभाव होता है। अतः उसके प्रतियोगी की समुत्पत्ति से उसका नाश चरितार्थ है। ध्वंस तथा प्रतियोगी में कालिक विरोध अर्थात् एक काल में अनव स्थिति एवम् ध्वंस तथा ध्वंसक रूप प्रतिद्वन्द्वी में कालिक अविरोध अर्थात् सह स्थिति सिद्ध होने पर संसर्ग अभाव ही नहीं, अपितु अभाव रूपता भी असिद्ध है। तथापि न्याय प्रस्थान में अनादि – सान्त प्रागभाव संसर्ग अभाव के अन्तर्गत है । प्रध्वंस अभाव के सादि – अनन्त तथा अत्यन्त अभाव के अनादि – अनन्त होने से संसर्ग अभाव सिद्ध है। तथापि जन्मशील की भाव विकारता सिद्ध और अभाव विकारता असिद्ध है।

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