मीडिया प्रभारी अरविन्द तिवारी ने दी पुरी शंकराचार्यजी के आगामी प्रवास की जानकारी

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अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

रायपुर – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज चातुर्मास्य के अतिरिक्त पूरे वर्ष भर सम्पूर्ण भारत तथा नेपाल आदि देशों में प्रवास के दौरान सनातन संस्कृति के मान बिन्दुओं की रक्षा के प्रति आमजन को जागृत करते रहते हैं। इसी तारतम्य में अपनी प्रयागराज यात्रा पूर्ण कर सारनाथ एक्सप्रेस द्वारा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर आज प्रात: पहुंचे। रेल्वे स्टेशन पर भव्य स्वागत पश्चात शंकराचार्य आश्रम , श्रीसुदर्शन संस्थानम् , रावांभाठा पहुंच गये , जहां उनका 07 जुलाई तक प्रवास कार्यक्रम निर्धारित है। इस अवधि में दिनांक 04 जुलाई से 06 जुलाई तक प्रात:कालीन सत्र में पूर्वान्ह साढ़े ग्यारह बजे से दर्शन , दीक्षा और संगोष्ठी कार्यक्रम में उपस्थित सनातनी धर्मावलंबी धर्म , राष्ट्र और ईश्वर से संबंधित अपनी जिज्ञासाओं का समाधान श्रीशंकराचार्यजी से प्राप्त कर सकेंगे। वहीं सायंकालीन सत्र में पुन: दिनांक 04 जून से 06 जुलाई तक साढ़े पांच बजे से दर्शन एवं आध्यामिक संदेश श्रवण का सुअवसर प्राप्त होगा। पुरी शंकराचार्यजी दिनांक 07 जुलाई को प्रात:कालीन सत्र पश्चात अपरान्ह साढ़े तीन बजे शंकराचार्य आश्रम से प्रस्थान कर सायं रेलमार्ग द्वारा पुरी ओड़िसा प्रस्थान कर श्रीगोवर्द्धनमठ में चातुर्मास्य व्यतीत करेंगे। इसकी जानकारी श्री सुदर्शन संस्थानम , पुरी शंकराचार्य आश्रम / मीडिया प्रभारी अरविन्द तिवारी ने दी। बताते चलें कि पुरी शंकराचार्यजी विभिन्न अवसरों पर उद्घृत कर जनसामान्य को शास्त्रोक्त सिद्धांतो को सरल और व्यावहारिक रूप से स्पष्ट करते हैं। कलयुग के लक्षण के संबंध में कहते हैं कि सज्जनों की कमी यह है कि वे संघ नहीं बना पाते इसलिये स्वयं पिस जाते हैं। अगर सज्जन हैं , तो कम से कम दस व्यक्ति मिलकर चलें तो सामने वाला सोचेगा कि इनकी ओर आंख तरेरना नहीं चाहिये , कुछ मंहगा पड़ सकता है। ऊपर ईश्वर , बीच में धर्म , नीचे संघ बल ; तब जाकर पिसने से बच पायेंगे , मनोबल उद्दीप्त रहेगा। इसी तरह आचार्य और शासक के संबंध पर दृष्टिकोण देते हैं कि शासनतंत्र के शोधन का दायित्व ऋषियों पर जाता है ; इस दायित्व को हम जानते हैं और समय आने पर उसका निर्वाह करने के लिये ही भगतत्कृपा से दक्षता प्रकट कर सकते हैं। भगवान तथा पतिव्रता देवी की महत्ता के संबंध में उद्घृत करते हैं कि भगवान भी लीलापूर्वक दो से डरते हैं। एक ब्राह्मण से और दूसरे प्रतिव्रता देवी से। भगवान् भी किसका सबसे अधिक सम्मान करते हैं। भगवान भी लीलापूर्वक डरते हैं तो किससे डरते है, पतिव्रता देवियों से, इसलिये मातृशक्ति सर्वोत्कृष्ट हैं। मातृशक्ति जन्म से ही आराध्या हैं भोग की भूमि के रूप में , पिताजी के रूप , अर्थ – काम की पिटारी के रूप में इनको देखना कलुषित विचारधारा है।

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