अखण्ड सौभाग्य का प्रतीक है हरतालिका तीज
अखण्ड सौभाग्य का प्रतीक है हरतालिका तीज – अरविन्द तिवारी
जांजगीर चांपा – हिंदू धर्म में व्रत-त्योहारों का विशेष महत्व होता है , महिलायें साल भर में कई तरह के व्रत रखती हैं जिसमें भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला हरितालिका तीज का पर्व सुहागिन महिलाओं कें लिये प्रमुख रूप से खास महत्व रखता है। इस बार भी हरितालिका तीज दो दिन है , कहीं पर आज रविवार को मनाया जा रहा है तो कहीं पर कल सोमवार को मनाया जायेगा। इस व्रत में महिलायें दिन भर निर्जला व्रत रखकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा उपासना करती हैं। पति की लम्बी आयु और सुख समृद्धि की कामना के लिये महिलायें व्रत और पूजा पाठ करती है और और हरितालिका व्रत की कथा सुनती हैं। इस दिन भगवान शिव , माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू , रेत या काली मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा जाता है।
इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि पति की लम्बी आयु और सुख समृद्धि की कामना के लिये महिलायें सोलह श्रृंगार कर व्रत और पूजा पाठ करती है और हरितालिका व्रत की कथा सुनती हैं। हरतालिका तीज का व्रत एक ओर जहाँ सुहागन महिलायें पति की लंबी उम्र और वैवाहिक सुख के लिये करती हैं वहीं दूसरी ओर कुंँवारी लड़कियांँ हरतालिका तीज के व्रत को सुयोग्य वर पाने के लिये भी करती हैं। यह त्यौहार करवा चौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि करवा चौथ में चाँद को देखने के बाद व्रत तोड़ दिया जाता है लेकिन इस व्रत में पूरे दिन और रात निर्जला व्रत रखते हैं , रात्रि जागरण कर भजन – कीर्तन करते हैं और दूसरे दिन पूजापाठ के बाद जल पीकर व्रत तोड़ा जाता है। अगले दिन सुबह पूजा के बाद किसी सुहागिन स्त्री को श्रृंगार का सामान , वस्त्र , खाने की चीजें , फल , मिठाई आदि का दान करना शुभ माना जाता है। एक बार यह व्रत रखने के बाद जीवन पर्यन्त इस व्रत को रखना पड़ता है। इस व्रत के व्रती को सोना निषेध है , इसके लिये उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ जागरण रखना पड़ता है। प्रत्येक सौभाग्यवती स्त्री इस व्रत को रखने में अपना सौभाग्य समझती है। हरतालिका तीज की उत्पत्ति व इसके नाम का महत्त्व एक पौराणिक कथा में मिलता है। हरतालिका शब्द , हरत व आलिका से मिलकर बना है , जिसका अर्थ क्रमशः अपहरण व स्त्रीमित्र (सहेली) होता है।
हरतालिका तीज की कथा के अनुसार माता पार्वती जी की सहेलियांँ उनका अपहरण कर उन्हें घने जंगल में ले जाती हैं ताकि पार्वती जी की इच्छा के विरुद्ध उनके पिता उनका विवाह भगवान विष्णु से ना कर दें। मान्यता के अनुसार भगवान शिव को प्राप्त करने के लिये माता पार्वती ने सबसे पहले हरितालिका व्रत की थी। इसी दिन भगवान शिव ने देवी पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार करने का वर दिया था। सावन के मौसम में हर जगह हरियाली दिखने से इसे हरियाली तीज का नाम दिया गया है। हरतालिका तीज पर पूजन के दौरान महिलाओं का काला , नीला और बैंगनी रंग का वस्त्र पहनना निषेध माना गया है।इसमें सुहागिन स्त्रियांँ निर्जला व्रत रखकर नये वस्त्र पहन सोलह श्रृंँगार करके देवी पार्वती की पूजा-अर्चना करती हैं। इसके साथ ही माँ पार्वती को सुहाग का सभी सामान चढ़ाया जाता है। पूजन के लिये शिव पार्वती की प्रतिमा स्थापित की जाती है। रात में भजन कीर्तन करते हुये जागरण किया जाता है और शिव पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है। इस दिन जो गलतियों हो जाती हैं उसकी सजा अगले जन्म में भोगना पड़ती है। इसलिये इस व्रत में महिलाओं को बेहद सावधानी रखनी पड़ती है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने वाली महिलाओं और युवतियों को पूरी रात जागकर कीर्तन – भजन , पूजापाठ करना होता है। यदि कोई महिला व्रत के दौरान सो जाती है तो वह अगले जन्म में अजगर के रूप में जन्म लेती है। इस दिन व्रत के दौरान कोई महिलायें या युवतियांँ फल खा लेती है तो उसे अगले जन्म में वानर का जन्म मिलता है। इस दिन शक्कर का सेवन करने से वह अगले जन्म में मक्खी और जल पीने से वह अगले जन्म में मछली बनकर जन्म लेती है। जो महिलायें या युवतियांँ इस दिन व्रत नहीं रखती हैं उसे अगले जन्म में मछली का जीवन मिलता है। इसके अलावा शेरनी भी यदि इस दिन मांस-मछली का सेवन कर लेती है तो उसे भी इसका श्राप मिलता है। हरितालिका व्रत का महत्व जानते हुये भी कोई सुहागिन महिलायें या युवतियांँ इस व्रत के दौरान यदि दूध पी लेती हैं तो वह अगले जन्म में उसे सर्प योनि मिलती है।
हरितालिका तीज व्रत कथा
हरतालिका तीज व्रत भगवान शिव और माता पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार पिता के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान देवी सती सह ना सकीं और उन्होंने खुद को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में उन्होंने राजा हिमाचल के यहां जन्म लिया और पूर्व जन्म की स्मृति शेष रहने के कारण इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शंकर को ही पति के रूप में प्राप्त करने के लिये तपस्या की। देवी पार्वती ने तो मन ही मन भगवान शिव को अपना पति मान लिया था। माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ को पति के रूप में पाने के लिये हिमालय में गंगा नदी के तट पर भूखे प्यासे रहकर कठोर तप किया था। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता हिमालय बेहद दुखी हुये। एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वतीजी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आये लेकिन जब माता पार्वती को इस बात का पता चला तो वे विलाप करने लगी। एक सखी के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये कठोर तप कर रही हैं। इसके बाद अपनी सखी की सलाह पर माता पार्वती वन में चली गई और भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई। इस दौरान भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की आराधना में मग्न होकर रात्रि जागरण किया। माता पार्वती के कठोर तप को देखकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिये और पार्वती जी की इच्छानुसार उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया। कथा आती है कि तारकासुर के संहार के लिये शंकर जी ने पार्वती से विवाह किया , क्योंकि तारकासुर को वरदान प्राप्त था कि शंकर जी के पुत्र (गर्भ से उत्पन्न) द्वारा ही वह मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। अंततोगत्वा कार्तिकेय के रूप में पार्वती जी ने पुत्र को जन्म दिया और तब जाकर तारकासुर से मुक्ति मिली। श्रुति स्मृति पुराणों के अनुसार हरितालिका तीज के दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी रूप में स्वीकार किया था। तभी से अच्छे पति की कामना और पति की दीर्घायु के लिये कुंँवारी कन्या और सौभाग्यवती स्त्रियांँ हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं और भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।